पहले ही देह की क़ैद
उस पर भी...ज़ज्ब-ए-क़ुदरत का पहरा
यूं ही नहीं, तूने मुझे...
क़ैद किया है...
इतनी सख़्ती से
याद नहीं, पर माना...
कोई बड़ा क़ुसूर है मेरा...
पर तू क्या जाने
तेरी तड़प में..
रोज़ गीत लिखती हूँ...
वैसे ख़ूब भाता है,
मेरी कई फरियादों का जवाब,
तेरे बस एक इशारे से मिलना...
खुश हुँ...की इस दूरी ने साथ दिया...
तेरे और क़रीब आने में...
पर क्या अब भी
हममें ये फ़ासला ज़रूरी है....
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