तीसरे मंज़िला की छत पर,
मैं बैठ कर सच्चाई से नज़रे मिला रही थी।
एक जगह से दूसरी जगह बस नज़रे घूमा रही थी।
अचानक! एक ज़गह मेरी नज़र गड़ी,
दूर खेत में एक झोपड़े पर पड़ी।
ज़िंदगी वहाँ मुस्कुरा रही थी।
एक साथ खाते-पीते,
एक साथ हस्ते-मुस्कुराते।
एक दूसरे के आँसू पोछते।
नज़र आई मुझे
जिंदगी वहाँ सच्ची सम्पत्ति की धुन गुनगुना रही थी।।
फिर एक नज़र एक इमारत पर पड़ी,
वो भी झोपड़े के निकट ही पाई।
यहाँ कमरो की दूरियाँ,
रिश्तों पर भारी पड़ रही थी।
सब अपनी अपनी जिंदगी जी रहे थे।
किसी कमरे में जिंदगी मुस्कुरा रही ,
तो किसी मे आँसू बहा रही थी।
नज़र आई मुझे
जिंदगी वहाँ खोखली सम्पत्ति की बखान गा रही थी।।
शायद!
सच्चाई की ये दो नज़र ही काफी थी।
धन दौलत ही ज़िन्दगी की सम्पत्ति,
इस सोच की मेरी नज़रों में अर्थी उठ चुकी थी।
थोड़ी देर पहले इसी छत पर बैठे मैं इतरा रही थी,
अब इस ज़िन्दगी पर मैं तरस खा रही थी।।
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