'नन्हा बचपन'
मेमसाब के जाते ही संभालने लगती है उसके बच्चे को,
ना जाने वो खुद इतनी बड़ी कब हो चली है ।
खाते देख उसे (बच्चे को) काजू-पिस्ता, मन तो उसका भी ललचाता है,
पर घर में बीमार माँ का बिस्तर सीने में तैर जाता है।
पढ़ना-लिखना तो उसे भी भाता है पर, जिम्मेदारी तले ये शौक भी दब जाता है।
बर्तन, झाडू हो या कपड़े, हर काम वो कर लेती है,
अपनी आँखों के कोनों से, झरोखे भी तो रोक लेती है।
छोटी-छोटी गलतियों पर अब उसे रोना नहीं आता है, मेमसाब के डाँटने पर मुँह बनाना कहाँ आता है।
कभी झूठन से, कभी बेगार से पेट भरते देखा है,
खिलौने छोड़, लोगों को पानी पिलाते देखा है,
हाँ, मैंने एक बचपन को यूँ मरते देखा है।।
गिनती पूरी आती नहीं पर, हिसाब बराबर कर लेती है।
पाई-पाई जोड़ कर ही तो, छोटे भाई को टाॅफ़ी दिला पाती है।
कभी मेस में डिब्बे रखते, जीभ तो अक्सर ललचाती है लेकिन, 'दो दिन'और सोच उसकी चाल कहाँ रुक पाती है।
तड़कती धूप में, गुड़गुड़ाती भूख में, एक बचपन तपते देखा है, उसको तिल-तिल तड़पते देखा है।
अपनी स्याही से मैंने ऐसा बचपन उकरते देखा है ,
हाँ, मैंने एक बचपन ऐसा भी देखा है।।।
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