बिन सोचे कुछ भी बोल देते है
फिर शांत हुए तस्ली दे देते है।
"अरे मैने तो ऎसे हि बोल दिया था।"
पर बोली हुई बातें कहा बुलायी जाती है
शिहाही से लिख भी दे तो भी मिटाई जा सकती है।
मुह से तो दे दी होती माँफी है
पर मन के नफरत कि एक और बूँद
उस के गुनाहों के पन्नों में छप जाती है।
ये नफरत कि परचाई, हमारे साथ चलती जाती है।
-