थोड़ा डर कर, थोड़ा सहम कर,
मकां ने एक बात कही घर से,
ईमारतें पड़ोस की ऊंची बहुत हैं, धूप आये कैसे?
फूलों की क्यारी खिल ना पाएगी ऐसे,
पुरखों की धरोहर/विरासत पर कौन नहीं करता फ़क्र,
मकां ने ये बात कही होगी उसी ग़ुरूर ए असर,
कुछ खून के आंसू पीकर मकां से बोला घर
अपने नहीं छोड़ते साथ, हो पथरीली सी डगर गर,
बना के ईंट के ऊंचे,बेढंग से डब्बे,
घर बोल के इसे, झुठलाते हैं मेरी हकीकत ये,
कोई परिंद ना किसी भंवरे का खयाल आता है,
इंसान को अब नही कुदरत पे प्यार आता है,
अब तो बस सिर छुपाने छत हो आलीशान,
कौन माटी की खुश्बू का रहा क़दरदान?
ऐ मकां तू क्यों करता है घर का इंतज़ार?
जो है बर्बाद,जो है बेज़ार,
छोड़ दे ये आस
के फूलों की क्यारी का है इमारतों को ख़याल!
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