तू छोड़ दे कोशिशें इन्सानों को पहचानने की.. यहाँ जरुरतों के हिसाब से बदलते नकाब हैं, अपने गुनाहों पर सौ पर्दे डालकर.. हर शख़्स कहता यहाँ, जमाना बड़ा खराब है।
जिसने उन टूटते तारों से टूटने की तालीम ली है मैं वही इधर उधर बिखरा पड़ा इक बेजान रेज़ा हूँ, ये तो धड़कनें हर रोज़ धड़ककर मेरे ज़िंदा होने का दावा करा जाती है वरना तो मैं बेदिल बेज़ा हूँ...