"ज़िन्दगी"!
काश! तू कोई कविता होती।
'तुझे', अपनी सीर्केट डायरी में लिखती,
रखती , पन्ने को थोड़ा मोड़कर ,
'तुझे', और ख़ूबसूरत करती,
दो - चार उर्दू के शब्द जोड़कर।
कभी दुःख में 'तुझे' पढ़ती
कभी सुख में गा लेती।
कभी तन्हाई में गुनगुना कर,
मैं बेवजह, मुस्कुरा लेती।
मगर !
अफसोस है मुझको,
मैं क्या कहूँ ? तुझको,
ना 'तू' कोई सुंदर कविता,
ना मैं पेशेवर लेखक हूँ ।
'तू' ठहरी, रंगीन, दिलचस्प तमाशा,
और मैं! भोली-भाली दर्शक हूँ
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