कन्या-भ्रूण हत्या :- " एक सामाजिक कुकर्म "
पूजी गई मैं नौं दिन , नवरात्रि के आसन पे ..
नहीं पली मैं नौं महीने , बाबुल तेरे शासन पे ..
कतरा-कतरा पी रही थी , कोख में मानो जी रही थी ..
फूल रही थी सांसे मेरी , कोख में मानो सिमट रही थी ..
मचल रहे थे मेरे पाव , इस सिमटती दुनिया से निकलने को ..
व्याकुल थे मेरे जुबान , मां की पुकार लगाने को ..
आखिर रंग ली तुने अपने हाथ , मेरे जिंदगी के साए में ..
कुछ संजोए ख्वाहिशें रह गई अधूरी , मेरी किस्मत के माये में ..
थम गई मेरी हर वो धड़कन , जो मां के लहू से धड़कती थी ..
बुझ गई मेरी हर वो आकांक्षाए , जो मां के अरमानों से पनपती थी ..
यह कर्म नहीं कुकर्म है , नारी के उभरते अस्तित्व का ..
यह अर्पण नहीं दर्पण है , इस उभरते समाज के व्यक्तित्व का ..
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