हो ज़ईफ़ रिश्ते तो हवाएँ बिखेर देती है।
मुहब्बत खुद हर पल इम्तेहान लेती है।
कांटे तो मिलेंगे ही मंज़िल की जानिब।
काँटों से गुजर जाना इश्क़ की पहचान होती है।
सफ़र का आगाज़ बाकी है
ज़िन्दगी का इम्तेहान बाकी है।
रेत के ज़र्रो सा ये यकीं नहीं ।
चलने को जमीन छूने को आसमान बाकी है।
भला जख्म से भी कोई शहीद होता है।
ज़िंदगी जीतना है अभी तो जंग का मैदान बाकी है।
इतने भी कमजोर नहीं की संभालना भूल गए ।
वक़्त की तालीम थी वरना जिस्म में अभी जान बाकी है।
वहमें गुमान भी न था हक़ीक़त कैसे कह दे।
बेलोश मुहब्बत की अभी शान बाकी है।
ऐ दिल तू जितना भी बेरुखी कर यकीं तो बुलंदियों पे ही रहेगा ।
ऐ मुखातिब जिस्म में अभी रूह की पहचान बाकी है।
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