कुछ लम्हें कभी नहीं मरते,
वो ज़िंदा रहते हैं,
खामोश मुस्कुराहटों मे,
आँख से टपकती बूंदों में,
और खो जाते हैं हृदय की विशाल गहराई में,
फूटते हैं अंकुर फ़िर भावनाओं के,
और बढ़ने लगते हैं तिल तिल हर रोज,
उस लम्हें का विशाल वृक्ष,
घेर लेता है अपने ही अस्तित्व को,
फलता, फूलता,
कभी वसंत तो कभी पतझड़ सा लगता,
वक़्त दर वक़्त अपनी उम्र को जीता,
और एक दिन हो जाता है खामोश,
अपनी ही ठुठ को देखता,
अपलक, भावशून्य होकर।
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