- कहर -
ये कैसा प्रकृति का कहर,
जिसमें न बसता मेरा शहर,
बिना जुर्म खौफ की लहर,
सहते-सहते टूट रही कमर,
कभी जल से डूबी नहर,
बेबस हुई रोने को हर पहर,
सो रहे सब पीकर जहर,
सियासत को नहीं इसकी ख़बर,
कब तक करेंगे ऐसा सफर,
जिसमें न बसता मेरा शहर,
लगी शहर को ऐसी नज़र,
खिल रहे फूल भी बिना भ्रमर,
पथिक डरा चलने को डगर,
ये कैसा प्रकृति का कहर,
जिसमें न बसता मेरा शहर।
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