वो मांगता रहा रोटी दुहाई भूख की देकर,
लोग मुँह मोड़ कर चल दिए गरीब समझकर।
इंसानियत का ख़जाना जब नही तुम्हारे पास,
कैसे झूठा खिताब मै दे दूं तुम्हें अमीर समझकर।
तरसती निगाहें रहमतों पर अकीदा करती हैं,
नहीं चाहिए भीख,बस लगा लो गले आगे बढ़कर।
मजबूर किस्मत से है लकीरों को क्यों कोसते हो,
आज दास्तां हमारी है,दुआ है तुम्हारी न हो आगे चलकर।
बांट सकते हो यकीनन बहुत तबको में हमें लेकिन,
सबको मिलना है इसी ज़मीं में एक दिन ख़ाक होकर।
बल पेशानियों के तजुर्बो की कहानी कहते है,
हमदर्दी की झूठी भीख न दो,यूं बुढ़ापा जताकर।
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