कौन सुनेगा अकड़ में?
बिखरा है हिंदुस्तान वहाँ, बँटे हैं भगवान जहाँ,
एकता,सद्भाव की बातें, आती अब किसे रास यहाँ?
लोकतंत्र हमारे देश का ; आज है जाति, धर्म का दास बना।
सादे लिबास की आस्तीनों में है, नफ़रत का खंजर खून सना।
सोने, चाँदी हो गए महँगे, और सस्ती हो गई जान यहाँ,
मरघट जाने को आतुर दिखता है, सड़कों पर हिंदुस्तान यहाँ।
लोकतंत्र को राजतंत्र, बनाने का चल रहा है खेल,
फतवे पर फतवे होते हैं, नहीं होती है किसी को जेल,!
इंसानों की मति मारी गई है; मंदिर, मस्जिद के चक्कर में ,
कोरोना ने बता दी है सच्चाई, पर कब कौन सुनेगा अकड़ में?
कितने आए कितने चले गए, और आगे भी आना-जाना है,
जब दिखता नहीं खुली आँखों से, व्यर्थ अलख जगाना है।
अभी भी समय है गर चेते हम, भविष्य भी सुधर भी जाएगा,
और जो ज्यादा अकल दिखाई, सब चला अधर में जाएगा।
सियासतदान करें सियासत, उनकी नब्ज़ टटोलें हम,
उनकी कथनी और करनी में, मिलकर अंतर तोलें हम।
एक कुर्सी और थोड़ी-सी शान ,और उनका क्या जाएगा?
समझ सके न हम जो खेल, कहीं इंसान नजर ना आएगा।
छोटी- सी हमारी जिंदगी है, लड़-मरकर हासिल होगा क्या?
अपनी खुद की खैर नहीं है, तू पुश्तों का करने चला भला,!!
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