कई दिनों से कितना कुछ देखते आया, कितना कुछ महसूस हुआ और कितना होते–होते रह गया। जैसे बारिश की उस आखिरी बूंद को आप देखते हैं, और गिरने का इंतजार करते हैं, पर वो जब टप्प से गिरती हैं, तो एक पल के लिए डरा देती हैं। आप आंख मूंद लेते हैं। उसकी ठंडक महसूस नही होती हैं, उसके इंतजार में गुम हो जाती हैं।
अब जो कुछ महसूस हुआ, वो इस उलझन में उलझा रहा कि, क्या ऐसे वक्त में सभी महसूस करते हैं या मेरा अलग हैं? क्या करना होता हैं ऐसे वक्त में?
मानो! जैसे कुछ पता ही ना हो, जैसे सब आपके व्यक्तित्व से विपरीत हो। फिर हम सोचते हैं, मेरा व्यक्तित्व हैं ही क्या? क्या ये मेरा खुद का गढ़ा हुआ हैं या हालातों से पैदा हुआ मेरा हमशक्ल, जो दिखता तो मेरे जैसा हैं पर बनावटी हैं।
एक वक्त बाद, क्या हम भूल जाते हैं कि हमें क्या चाहिए, आख़िर हम आज जो कुछ भी कर रहें हैं , उसमें हमारी मर्जी कितनी हैं? क्यों, हम ख़ुद को हालतों और जज़्बातों को सौप देते हैं? शायद हम हिम्मत नहीं जुटा पाते, या खुद के आत्मविश्वास को रोज मरते देखते–देखते ये आदत में शामिल कर लेते हैं की यही अपने लिए सही रहेगा और संतोष नाम की पुड़िया का एक खुराक रात को दबा लेते हैं।
ख़ैर!
"खुलकर हर बात कह तो दू,
चुप रहने का क्या फ़ायदा,
चर्चे में तमाम रातें होंगी,
खुद को ही बदनाम करने का क्या फ़ायदा,
अब तो यूंही,आना जाना लगा रहेगा,
सरेआम होने का क्या फ़ायदा"
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