हर क्षण यह आभास होता है,
कही दबा हुआ है मेरा अस्तित्व।
बेटी, बहन, पत्नी, माँ, या बहू,
बस यही सब, या कुछ और भी हूँ?
जहाँ दिल है, वहाँ इच्छाओ का घर भी हुआ होगा,
ज़रा सोचो कैसे इस घर को रोंदा गया होगा,
प्यार की ज़न्जीरो में कैसे मुझे बान्धा गया होगा,
समझौते के नाम पर कैसे फिर एक औरत को ही दबाया होगा।
आवाज़ जो मेरी करती विद्रोह,
सनकी करार दिया जाता मुझे,
चाहती थी जिन सपनो को जीना,
जीती तो मतलबी कहा जाता मुझे।
हर क्षण कोसती हूँ खुद ही को,
क्यों अब तक यह सब सहती रही,
क्या तोड़ दू अब इस चुप्पी को,
या रहने दूँ कि अब देर हो गई?
उलझी हुई इस जीवन में,
टुकड़ो में ही ज़िन्दगी जी पाती हूँ।
इसी प्रशन पर कटता है अधिकतर समय,
आज़ादी के क्षणो की बस कल्पना भर ही कर पाती हूँ।
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