साहब, हमारे सच से तो कहीं ज्यादा झूठों की रफ्तार है
ज़ुबाँ से नही ज़ेब से बोलों, यहां पैसों से चलती सरकार है
किसी के भूखें मरने की चर्चा भी गली से नदारद लगती है
झूठे को छींका क्या किसी ने, छाती पीट रहा अखबार है
किसी उम्मीद से भरोसे की उम्मीद ना करना
यकीं तो धोखेबाज़ों ने कर रखा गिरफ्तार है
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