आज कल किसी भी मुद्दे पर अपनी राय रखने वालों को तुरंत वर्गीकृत किया जाने लगता है। समर्थन किया तो "भक्त", विरोध किया तो "द्रोही", और संतुलन बनाना चाहा तो "लिबरांडु"। मुझे तो ये समझ नहीं आता कि ये विचार हैं या सुपर मार्ट में मौजूद सामान जो बिना टैग, लेबल के नहीं बिकते!?
समझ तो ख़ैर मुझे यह भी नहीं आता कि इन छद्म बौद्धिक मठाधीशों को हर विचार पर अपनी बपौती जताने का ठेका देता कौन है? अब क्या खुले आसमान की बातें सिर्फ़ परिंदे कर सकते हैं, फ़ुटपाथ पर सोने वाले, बेघर या ग़रीब नहीं?
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