बहुत ही ज्वलंत और अदम्य प्रचंड,
ऐसा कुछ लिखना चाहता हूँ।
शब्दों में खुद को ढाल कर,
और आग का गोला बन कर,
इस पूरी सृष्टि से,
धूमकेतु सा टकराना चाहता हूँ।
या तो मैं रहूँगा,
या फिर यह सृष्टि होगी,
या फिर एक मुखाग्नि की,
ज्वलनशील वृष्टि होगी।
जो यथार्थ हो,
वही टिकना चाहिए,
इस विक्षिप्त पृथ्वी का,
अब अंत होना चाहिए।
हे परमपिता रचो फिर से,
नई सृष्टि तुम इस बार,
और इस बार तमाम निरर्थक,
तथ्यों का विनाश चाहिए।
मैं अब शब्दों के ताप से ,
हर एक लक्ष्य भेदूँगा,
शब्दों का ब्रह्मास्त्र,
बिना आज्ञा के चलाऊंगा।
जानता हूँ होगा परिणाम,
ख़तरनाक,
लेकिन इस नए संचार का,
एक और ... इतिहास मैं ज़रूर बनाऊंगा।
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