शिकारों की बस्ती उजाड़ सी है,
झेलम भी बदगुमान,परेशान सी है,
खड़े हैं चीड़ देवदार चुपचाप सन्न,
परेशान,पशेमान हर वक़्त अनमन,
दिल में रखते थे जो प्यार और दुलार,
कीमत लग चुकी उनकी अब सब है उधार,
वादी भी बर्फ़ ओढ़े है चुपचाप पड़ी,
कोई डाल न दे ऊपर धार लाल खड़ी,
कब होगी चैन-ओ-आराम की सहर,
सताती रहती है ये बात हर एक पहर,
एक पीढ़ी गुम हुई यह सच्चाई कड़ी,
दूसरी लाचार सी ले बैसाखी खड़ी।
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