"मिलन"
हाँ चलना चाहूँगी साथ,उस क्षितिज के अंतिम पड़ाव तक अनवरत,उंगलियाँ उठा कर जिसे तुम धरती-नभ का मिलन इंगित करते हो।
हाँ गिरना चाहूँगी अविरल साथ तेरे सरिता सा,उस पर्वत से जमी की कोख़ में,जिसे तुम आसमाँ-धरती के मिलन का अभिप्राय मानते हो।
"बिछड़न"
हाँ बहना चाहूँगी उन हवाओं सा अनवरत,जो निश्छल भाव से अपने प्रेमी का उसकी प्रेमिका से मिलन कराती है,जिसे तुम इंगित करते हो एकतरफा प्रेम बारिश का।
हाँ उगना चाहूँगी जंगलो में,बाँस के झुरमुटों सा निरंतर,जो कटीला हो कर भी प्रेम की मधुर ध्वनि प्रसारित करता है जिसे मानते हो तुम राधा-कृष्णा के प्रेम की अमूल्य धरोहर।
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