शहरी चमक -दमक के अंधेरे कोनों में,
गंदगी के साथ पसरे जीवन के ढेर ।
अलसुबह से नारकीय जीवन जीते,
चौराहों पर जिंदगी का बाजार लगाते ।
बचपन के हाथों में कचरे की थैलियां,
नाकारी के बोझ तले बूढ़ी जवानी,
कोख में स्याह भविष्य लिए हाथ
पसारती ममता । कभी बेचे गये,
कभी लूटे गए,
कभी फुटपाथों पर कुचले गए ।
हमारे फिक्र की इंतिहा मुंह फेरने
या चंद सिक्के देकर
पीछा छुड़ाने भर की है।
इंसान बनने की कोशिश
शेखर अब इंसान से नहीं होती ।।
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