क्या करूँ क्या ना करूँ,
कुछ समझ नही आता,
मन और वास्तविकता की लड़ाई में,
वो पूरी तरह फँस जाता ।
क्या गलत क्या सही,
कुछ समझ नही आता,
चौराहे पर खड़ा हूँ,
पर रास्ता नज़र नही आता।
किसकी सुनु किसकी नही,
कुछ समझ नही आता,
उलझनों के बवंडर में,
सब कुछ उड़ता जाता।
धीरे चलू या दौड़ लगाऊ,
कुछ समझ नही आता,
पर हाथो में रेत के जैसे,
वक़्त धीरे धीरे फिसलता जाता।
क्या कहूँ क्या न कहूँ,
कुछ समझ नही आता,
कोई समझेगा भी मुझे?
इस सोच में हमेशा वो रह जाता।
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