तिनके बटोरते है यहां वहां से,आशियाना बनाने के लिए,
बच्चों से दिन अब कहां,माँ की गोद में गुज़रती थी सुबह शाम जहां।
सोचते हैं क्य़ो बड़े हो गए हम,वो नसमझी का दौर बेहतर था,
भले वक्त के साथी है बहुत,मुश्किल में खुद का सहारा है यहां।
दस्तक देती रहीं ख़ुशिया,दरीचे पर रोशनी की,मगर..
सजर सूख गया प्यास से,पानी ही पानी था जहां।
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