चांद भी , कितना बेबस स लगता है ।
संगीन पलों में भी , चांदनी बरसाता है ।
पर सही है न ,
वरना रात , घनघोर अंधेरे में पलती रहतीं ।
सहर की मुंह-दिखाई को , बरसों तरसाती ।
मौसम भी जानें , कौन सी कसर निकालती ?
ज़िंदगी-ए-पतझड़ में , बाहार से रूबरू कराती ।
बारिश भी , बेवफ़ा सी साबित होती ।
मेरा साथ , कुछ लम्हें दे रुक जाती ।
शाखें , अपने मुरझाएं फूलों को जुदा कर देती ।
बीतें ज़ख्मों को , सजाने की इजाज़त नहीं देती ।
समंदर का पानी , ठहरता नहीं चाहे रस्ते हो पथरीले से ।
हम क्यों रुके फिर , कोई भूचाले ए परेशानी आने पे ?
ये कुदरत , चीख-चीख के तुझे गवाही दे रही ।
तू भी इसी की देन है , फिर कैसी गुमराही ।
---Anuradha Sharma
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