कुछ सुनने को बेताब ये मन है
रात के सन्नाटे में शोर कैसा ये अभिन्न है
जगमगाते जुगनुओं का रूप कुछ अतुल है
ख़ामोशियों का भी आज अपना ही सृजन है
दो बातों में भी, व्याख्या आज पूरी है
देख ज़रा, तुझ बिन रात आज भी अधूरी है
कुछ सुनने को बेताब आज ये मन है
तेरे प्यार बिन, सावन भी अब कितने बे-रंग है
रात ढलते रहे कुछ इस तरह तेरे साथ
टिमटिमाते तारों को जैसे कहनी थी दिल की बात
बिन कहे, आंखों ने खोले उस रात कई राज़
महज़ शब्द नहीं, एहसासों ने मुकम्मल किए
उस रोज़ बेताब मन के जज़्बात...!
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