मेरी शरीयत में तेरा एहतराम है कोई हिज़ाब नही है
मैं बाशिंदा हूँ उस कौम का जहाँ कोई कसाब नही है।
एक बात ठान लें घर बदल ही लें दामन बदल ही लें
तेरी कुछ नस्लें खराब है और तेरा कोई जवाब नही है।
ग़र मैं जो काफ़िर हूँ तेरे लिए तो क्या मैं पसंद नही
अब अजीज हम-नफ़स बना ही लो कोई बे'आब नही है।
है हदीद तुझ पर पुर काबिज़ मैं भी तो तेरा शैदाई हूँ
ये तो पाक़ मोहब्बत ही है ये कोई इंकलाब नही है।
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ऐसे न होते पत्थर, ऐसे न रहते रहकर
किसने रिहाई चाही, किसको कैद है होना।
अगर मिरे दोस्त न हो, तो फ़िर ही बचा क्या
रहें माशूक के भरोसे, ऐसे बुज़दिल न होना।
कोई मेरी तरहा भी हो, मिले तो संभाल लेना
कहाँ के दिल है वरना, होके किस-किसका होना।
मुझे इस वफ़ा की खातिर, मिलने है ज़ख्म सारे
वो रात आखिरी हो, न वो ईश्क़ फ़िर से होना।-
रौनक क्यों अब मेरे घर आए
मैंने कुछ चिरागों से घर जलाए।
इन दीवारों का सूनापन गवाह है
बंद दरवाजे क्या कभी खुल पाए।
भरी महफ़िल से आज सन्नाटे तक
एक अरसा भी है अगर रुक जाए।
तमाम उम्र जो खलिश ढूंढ़ते रह गए
वो लिए चल रहे थे सीने में छुपाए।-
एक वक्त के बाद वक्त फ़िर वो न रहा
और सिवाय तस्सली के कुछ तो न रहा।
तेरी दुनिया तेरे चर्चे तेरे रिश्तें ही ज़िंदा है
एक मेरे घर का पता सारे शहर को न रहा।
रंज ने रंजिशें भी की तो घायल तीरों से
ये मखमल सा ज़िगर मान भी लो न रहा।-
मेरी शरीयत में तेरा एहतराम है कोई हिज़ाब नही है
मैं बाशिंदा हूँ उस कौम का जहाँ कोई कसाब नही है।-
अगर कहीं है वो पहले सी हस्ती
मैं फ़िर चिलमन से रोज की तरहा
जुरूर देखूँगा पहले सा सावन
के बरसों के अरमां जागेंगे सही
नए सफ़र को इक एहसास को
फ़िर नई ख़्वाहिश की आस को
जो खिलेंगे फूलों के गुलशन
होगी उम्मीदें फिर से रौशन
मिट्टी के घरोंदे से भी बेहतर
घास के मैदानों को चुनकर
इक खुशहाल सी कुटिया
मैं फ़िर बनाऊंगा।-
इक रास्ता रोज उस शहर को जाता है,
जैसे भी हो अब अपना गुजारा हो जाता है,
होती है सुबह भी और होती है रात भी लेकिन,
मेरा हिस्सा आते-आते काम तमाम सारा हो जाता है।
सभी खुशियां अपनी सी लगती है शुरुआत में,
आखिर में सारे जमाने का गम हमारा हो जाता है।
अब अक्श में ही लेकिन मेरे आंखों बसे रहना,
गुरबत में थोड़ी तसल्ली थोड़ा सहारा हो जाता है।
कोई ढूंढते-ढूंढते आए किसे तलाश है "अब्र" की,
यहां तो हर पसंदीदा शख्स मुझसे किनारा हो जाता है।-
किसकी हथेली थाम लूँ किसकी लकीरें माँग लूँ
कोई भी नही है अंधेरे में किसको जुगनू मान लूँ।-
अब्र तेरे वास्ते इक पत्ता भी न ठहरा,
तूने शाखों को मुस्तकबिल बनाए रक्खा,
पतझड़ के इंतज़ार में।-
किसी को खूब चाहने का सिला आखिर क्या होगा,
जो होगा इक वक्त के बाद मोहब्बत में दगा होगा।-