माना मुकर्रर ना हुई हमारे इश्क़ की दुआ पर हमसे बिछड़ने का कौन-सा दर्द तुम्हे बहुत हुआ तुम जो अब हमें अपना एहसान गिना रहे हो अपना प्यार हमें याद दिला रहे हो हमारी मुस्कान को अपनी जान बता रहे हो तुम्हें लगता है हम भूल गए है सब कुछ पर तुम तो बस हमारे ज़ख्मों के पन्ने पलट रहे हो मरहम लगाना तो तुमने शायद सीखा ही नहीं इसलिए फिर से नए जख़्म बना रहे हो चलो माना, मोहब्बत अब भी है तुम्हे हमसे तो ठीक है थोड़ा-सा इंतज़ार कर लो जैसे तुम नए रिश्तों को जी कर आ रहे हो हमें भी तो कुछ नए लोगों को आज़मा लेने दो.
Kamyaabi kuch is qadar hamare paas agayi, Jabse humne apne zakhmo ko apni taaqat banaliya, Junoon chadha kuch yun, ki mukhtasir se un zakhmon ne , hamari zindagi ko muntasir banadiya...
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