दुनियादारी दिखावे में ही ,खो गये हैं सब,
अपनों में अपनों को ही, ढूँढते हैं हम अब।
छिप गये धन दौलत,रूपये पैसे की आड़ में,
मतलबपरस्ती की दुनिया में कदम बढ़े जब।
प्यार मोहब्बत का अभाव,रिश्ते नाते भी न रहे,
न तेरा न मेरा,नुकसान फायदा देखते हैं सब।
भागदौड भरे इस जीवन में,नजदीकियाँ न रहीं,
समय का अभाव,पास आने से घबराते हैं अब।
अपनापन दिलों से समाप्त होने की कगार पर खड़ा,
गुंजाइश ही न रही मन में,बस ढोंग करते हैं सब।
कलियुग की पहचान यही,यही देखना है सबको,
न कहलायेंगे भाई बहन,माँ बाप,न होगा हमसफ़र तब।
-Surbhi agrawal
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