हद हो जाती है यार लोग इसकी उसकी सबकी परवाह करते हैं । अरे कभी अपनी परवाह भी कर लो ।यकीन मानीये जो अपना सम्मान करते हैं वो दूसरे किसी का अपमान नहीं कर सकते।यही प्रक्रिया आत्मसम्मान कहलाती है।शेष तो एटीट्यूड और ईगो आदि के विषय में आप समस्त गुणीजन बेहतर जानते हैं।हमें दूसरे की पीड़ा एहसास तभी होगा जब हम अपने प्रति भी संवेदनशील होना सीख लेंगे । दूसरे को पीड़ा पहुंचाकर स्वयं अपने आपको सुख नहीं मिलता बल्कि सदैव अपराध बोध होता है ।यही आत्मा का दर्शन है बिल्कुल सामान्य रूप में है । हमको मालूम है कि रिश्वत देना गलत है आत्मा दुत्कार रही है लेकिन देते ही हैं । हर गलत काम करने से पहले हमको पता होता है हम गलत कर रहे लेकिन करते वही हैं । क्या ये प्रक्रिया आत्माघाती होने की प्रक्रिया नहीं है?स्मरण रखीये परंपराओं का संरक्षण एवं विकृतियों का दहन ही सम्यक होता है। मानना है मानीये नहीं तो दर्शन बघारीये।कोई अंतर नहीं पड़ेगा, क्योंकि मैं कोई नयी बात नहीं कह रहा हूं ये बातें सदियों से चली आ रही हैं।और एक हम कि कुत्ते की पूंछ भी तौबा कर ले।कितनो लागत लगा दो नतीजा तो ढाक के तीन पात ही रहेगा।दूसरे की स्वतंत्रता की परवाह हम तभी करेंगे जब हम स्वयं अपनी स्वतंत्रता का सम्मान करना सीख लेंगे।सही मायनों में यही हमारी सफलता है आत्मसम्मान के साथ जीवन व्यतीत करना।
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