मैं तो समुंद्र का वासी हूं, समंदर में जाने को अब बेकरार हो गया हूं!
अपनी मंजिल से दूर थोड़ा, अब भी बाकी हूं!
निकलनी है फिर एक बारी, अपनी पहचान दरिया में बनाने को!
परीक्षाओं की बेड़ियों में फस के, अपनी कश्तियों से तन्हा हो गया था!
यह तन्हाई अब सही नहीं जाती, फिर इश्क लड़ाने निकलनी है!
हवाओ से फिजाओं से, अब बातें करनी जानी है!
अपनी जहाजों को लिए, लहरों को चीरते जाना है!
उन हवाओं को काटते, सफर जो तय करनी है!
बिना रुके, बिना थके, दिन-रात जो चलनी है!
मैं जहाज का वासी हूं, अब जहाज पे जानी है!
इस साल तो नहीं, पर अगले साल जानी है!
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