मैं खामोश ठहरीं हुई,
देख रही बदलते हालात को,
समय के इस पड़ाव मे,
बदलते रिश्तो के रूप को,
ख़ामोश मैं खड़ी रही,
आपनो के बीच अनजान बन कर,
घुटने लगी है अब साँसे मेरी,
इंसान को गिरगिट समान
रूप बदलते देख कर,
हैरान हूँ ये सोच कर,
अपनो मे ये कैसा जहर,
ना कोई है साथ चलने को,
ना कोई है साथ देने को,
बस रिश्तों के नाम पर,
गैर ही गैर है चारों तरफ़।
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