नहीं बनने देता तवायफ़ को दुल्हन,
ज़माना मगर माँ बनाता है उसको।-
बेचती हूँ अपने जिस्म को महज रोटी के लिए।
सोती हूँ सैकड़ो के साथ घर चलाने के लिए।
न जाने क्यों ये दुनिया मुझे तवायफ़ बोलती है,
कभी कुछ भी तो नही किया हवस मिटाने के लिए।
ख़ुद की भूख मिटाने के लिए ज़माने को सुख दिया मैंने,
कभी नकाब नही पहना अपना सच छुपाने के लिए।
तुम क्या जानोगे मेरा दर्द, खून के आँसू रोती हूँ मैं भी,
कोई भी तो नही आता मुझे कभी चुप कराने के लिए।-
हाँ! मेरा घर नहीं है, कोठा बुलाते हैं
जगमगाती रोशनी के उस नुक्कड़ को “रेड लाइट" बताते हैं
दिन में देखा है जिन नज़रों को हिकारत से देखते हुए,
स्याह रातों में वो ही, मेले सी चहल पहल मचाते हैं
सलोनी सूरत, आँखों मे नूर बसा गज़रा सजाती हूँ
रेंगवाती हूँ छाती पे, कई दफ़े टांगो के बीच से लहू भी बहाती हूँ
बंद दरवाज़ों के पीछे, मेरी सिसकियों से जागती है मर्दानगी उसकी
मेरे कराहने और ‘गाली' तक से गर्मजोशी बेधड़क बढ़ जाती उसकी
मेरी चीखें, मेरी छटपटाहट सुन्न पड़ जाती है
“रानी है तू मेरी" शब्दों की दलाली क्या खूब रंग लाती है
भूख मिटाई है मैंने, कोख उजाड़ उजाड़ कर
बटोरें हैं हुस्न पर फिके पैसे, आबरू के पर्दे जला जला कर
हूँ खण्डहर अंदर से, बाहर से सजी हूँ दीवाली हो जैसै
कई बार दुल्हन भी बनी एक रात की, तलबग़ार नही हो मेरा प्रेमी हो जैसे
पैखाने सी जरूरत हूँ मैं ,जमाने के लिए
इस्तेमाल तो करेगें ही गंध मचाने के लिए
माना थूकेंगे, गंदगी बुला मुँह भी बिचकाएगें
पर जोर की तलब आने पर, जनाब और कहाँ जाएगें
है भीडं गंदगी की चारों तरफ मेरे, और हो हल्ला है कितनी गंदगी है भीड़ में
पर मैंने भी देखी है असलियत ‘सभ्य’ सोच की, मुखौटा जो गिर जाता है बिस्तर पर प्यास बुझाने में
वाकिफ़ हूँ मैं, सड़े केले सा हश्र है मेरा, जब बदन गल जाएगा
बस इक टीस मेरे मन की रही, जम़ीर बिकने का सफ़र अनसुना रह जाएगा
-
'वैश्या'
तन का विक्रय कर प्रति रात,
वो भार दिवस का सहती है।
पापी पेट के भरण के खातिर
एक वृक की क्षुधा मिटाती है।
एक चरित्रवान का दोष छिपा,
खुद चरित्रहीन कहलाती है!
(पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें)-
She is not just a piece of flesh
draped in the clothes,
Within that flesh there lies a
heart so deep that have many
emotions, disgust and agony
at every single moment when
a stranger touch her skin as if
it's owed by him,
She is not just a piece of flesh
draped in the clothes,
Within that flesh there's many
secrets and dreams buried
so deep to escape an empty
stomach and hunger that
kills...!!!-
"PROSTITUTE"
A famish in her stomach
a hungry phallus of yours,
compelling case of her
& a wormy wish of yours,
she sold her torso for hundreds
to depose lust into her duct.
She stretched her legs to
satisfy your satanic desires,
her genitals screamed for
an esteem with each push,
& for you she was a mere hole
to digest your filthy erection.
Play was over, she was paid
you returned & her kids were fed,
alas !! this was not the end
crotch was victoriously tortured
dignity was yet to be tormented,
after all you were all loaded.
You are a respected gentleman
quelling her honour & she is the
"prostitute", the only sinner,
you demolished her pride
& condemned her character...
Of course you're the "Mr. Man"
with a very virgin mind...
(Read the caption)-
हम तो
अनजान थे
इस हरामी सिक्के की
फ़ितरत से
उस गिरे हुए
सिक्के ने उनका
पल्लु भी
गिरा दिया-