मन भरा भरा हो जाता है जब तुझको कोई समझ न पाता है हूँ इंसान की नस्ल मैं भी क्यूँ मशीनों में आँका जाता है नहीं बोलती कुछ तो क्या मुझमें बची सम्वेदना नहीं किसी गलत व्यवहार पर क्या हुई मुझे वेदना नहीं हर आँसू के कतरे में छलक गया मन का उद्गार अंतर छलनी हो जाता है जब होता है दुर्व्यवहार
गरिमा क्या है? पहले प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती थी ओछे बयान और ओछी हरक़त से अब तो शीर्षस्थ नेता भी सड़कछाप बयान और बेसिर पैर दलील दे रहे हैं कोरी जुबान फिसलने को व्यक्तित्व का आछेप और मान मर्दन कर रहे हैं... ख़ुद की हैसियत गरिमा जैसे भारी शब्द का शब्दार्थ तक समझने की नहीं है... सत्ता इतनी ज़रूरी कुछ लोगों के लिए कि झूठ को चीख कर परोस रहें.. दुविधा ये है कि भोली जनता उसको सच न मान बैठे.. महत्व अब राजनेताओं का शिकार हुआ वो अपनी सत्ता को बचाने में गुण्डों और फरेबियों जैसी भाषा का उपयोग कर रहे और शीर्षस्थ के कहने ही क्या.. शीर्षस्थ फरेब की बात कर रहे.... आह!
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