साये धूप के बने थे,दिन निकलते ही फिर भी,
न जानें क्यों जलनें लगे।
कैसी हैं मंजि़लें ये कैसा सफ़र है,यूँ तो अक्सर चलते हैं कदम़,
न जानें क्यों यहाँ रास्ते चलने लगे।
घूमकर बादल जो कभी, भिगाते थे धरा को,
न जाने क्यों वो अब चुपचाप निकलने लगे।
हुआ करते थे जो कभी बाशिंदे श़हरोंं के,
न जाने क्या हुआ जो अब बंजारों सा रहने लगे।
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