खुली किताब सी मैं.. पढ़ने दिया था तुमको.. जाने क्या सोच कर.. लिखना शुरु कर दिए. खुली किताब सी मैं.. जज़्बात मेरे अपने.. जाने क्या सोच कर.. अपने अल्फ़ाज़ पिरोने लगे.. खुली किताब सी मैं.. अपने रंग के कवर में लिपटी.. जाने क्या सोच कर.. कवर बदलने शुरू कर दिए.. खुली किताब सी मैं.. आज़ादी में डोलने वाली.. जाने क्या सोच कर.. आलमारी में सज़ा दिए.. हाँ थी अधूरी किताब.. नहीं करनी है ऐसे पूरी.. जैसी हूँ वैसी पढ़ो सरकार..
ज़िन्दगी की किताब में, यादों की कलम छूट गयी थी आज मिल गयी मगर, वो पन्ना भी खुल गया जहाँ, मेने तुम्हें लिखा था। उस कलम से अधूरे, 'हम' को फिर लिखना चाहा, पर मुझे 'तुम' मिले ही नहीं, और आज जब 'तुम' मिले तो, मेरी कलम टूट गयी।
ज़िन्दगी की किताब और कलम दोनों आपके हाथ मे ही है,, अब आप पर निर्भर करता है की आप अच्छा लिखना चाहते हो या बुरा लेकिन एक बात हमेशा याद रखना लिखा हुआ कभी नहीं मिटेगा सिर्फ पन्ना बदलेगा या तो फ़टेगा,,