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17 APR AT 14:51

अधिकरण तत्पुरुष -इसमें अधिकारणकारक की सप्तमी विभक्ति के चिह्न 'में ' ,' पर ' , ' ऊपर ' आदि का लोप होता है; जैसे -
समस्त पद समास विग्रह
आपबीती आप पर बीती
कार्यकुशल कार्य में कुशल
दानवीर दान में वीर
आत्मविश्वास आत्म पर विश्वास
गृहप्रवेश गृह में प्रवेश
धर्मवीर धर्म में वीर
नीतिनिपुण नीति में निपुण

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14 APR AT 10:35

सांझ की ढलती हुई पहर में बैठे हैं सॉन्ग
ज़िंदगी के ताने बाने लिए हम
दिन भर की गुत्थी को सुलझाते से
ढलती हुई शाम, रात के आगोश में

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13 APR AT 19:08

एक वक्त था जब जेब में पैसे कम थे,
मम्मी पापा की मार से डरे हुए हम थे,
सिगरेट-बीयर छिप-छिप कर पीते थे,
नए कपड़े खरीदते थे और फेंकते थे,

आज सब कुछ मन मुताबिक हो गया है,
पैसों से पर्स लगभग भर गया है,
मम्मी पापा का भी डर सिर से हट गया है,
बस जो लड़का कॉलेज में था वही बदल गया है,

कपड़े घिस जाते हैं नए आते नहीं,
बीयर बार जाने के लिए पैर आगे आते नहीं,
सिगरेट के धुऐं से सिर दर्द होने लगा है,
कॉलेज का वो लड़का इस आदमी के साथ क्यों रहता नहीं,

खिलखिलाने के लिए आज मुँह खुलता नहीं,
घर से बाहर निकलने के लिए मन करता नहीं,
पता नहीं थक गयी है जिंदगी या ये आदमी,
पुराने लड़के की ख्वाहिश पाकर भी खुश रहता नहीं,

कंधे पर सब्जी का थैला और हाथों में दूध की थैलियाँ,
थाली में दाल-रोटी और लौकी-तोरई की सब्जियाँ,
चिपके हुए बाल और मोजों की फटी एड़ियाँ,
जीवन का हरेक हिस्सा पीछे छोड़ आगे बढ़ती रहती हैं जिंदगियाँ।।
prAstya..........(प्रशांत सोलंकी)




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13 APR AT 9:17

सपनो की पोटली में
ना जाने क्या-क्या सजाया था
बचपन की उन सरारती यादो ने।
ना जाने क्या-क्या बनने का ख़्वाब देखा था
उन बचपन के मासूमो ने
सोचकर हँसते भी है,
पर असलियत को देख दुखी हो
अपने आपको समझाते भी है।
कि वो नादानी थी
अब भूल जा उसे, असलियत अपना ले।

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13 APR AT 1:24

पुरुष की हवस मिटाने के लिए महिला को शादी के बंधन में बंधना पड़ता है।

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12 APR AT 22:19

में बड़ा आवारा
वो नदी जितनी शांत है,
में सहारे के तलाश में
और वो मेरा किनारा है,
प्रबल, निरंतर धारा उसकी
ज्ञान का वो भंडार है,
खुद्दारी और दिलदारी का संगम जिसमे
वो और कोई नही
तुझमें छीपी तेरी प्रतिमा है।

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कभी-कभी ये लगता है
कि क्या है? जो ये लगता है,

है सब कुछ तो यहां पर, फिर
भी कुछ नहीं सा लगता है,

है आज़ाद हर कोई यहां, फिर भी
किसी कफ़स में बंधा सा लगता है,

है शब्द, अल्फ़ाज़ सभी यहां फिर
भी कागज़ ये खाली सा लगता है,

देखना सब कुछ यहाँ तुम्हरा
कुछ भी न देखना सा लगता.!

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11 APR AT 13:29

समस्त पद समास विग्रह
मनोविकार मन का विकार
फूलमाला फूलों की माला
राजदूत राजा का दूत
दीपावली दीपों की अवली (कतार)
सूर्योदय सूर्य का उदय होना
सूर्यास्त सूर्य का अस्त होना
कन्यादान कन्या का आदान (वर द्वारा
कन्या ग्रहण करना )
भूदान भू का दान
भारतवासी भारत का वासी

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10 APR AT 10:10

आज धरा भी भाव विभोर है,
चारो तरफ छायी हरियाली है,
पतझड़ के सूखे पेड़ो पर,
फिर गूंजी किलकारी है।।
कोयल राग सुरों का छेड़े,
तितली भौरों की कव्वाली है,
इंद्र धनुष में धरा रँगी है,
ऋतुराज के स्वागत की तैयारी है।।
माँ शारदा की वीणा से,
सरगम की लहरें निकल रही,
जमी बर्फ पर्वत शिखरों पर,
पानी बन नदियों में पिघल रही।।
तोड़ रही हैं सूरज की किरणें,
अकड़ी हुई अपनी अंगड़ाई को,
तारे भी आँखे खोल देख रहे हैं,
ऋतुराज के स्वागत की तैयारी को।।
आम खुशी में बौराया है,
पगला महुआ कुचियाया है,
अंगूरों में शहद भर रहा,
तरबूज-खरबूज की तैयारी है।।
ऋतुराज के स्वागत की तैयारी है.....
prAstya.........(प्रशांत सोलंकी)





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8 APR AT 23:04

जो किया उसे हम भूल गए, जो हुआ नहीं वह याद रहा,
माता की ममता भूल गए, बाप का डंडा याद रहा।।
दोस्तों की पार्टी याद रही, माँ के हाथ की रोटी भूल गए,
अंकल की कार याद रही, बाप के कंधों का झूला भूल गए।।
कपड़े-जूते फटे पुराने जो पहने वो सब दिन-रात याद रहा,
माँ-बाप ने दिन रात जो पसीना बहाया, वो भीगे कपड़े भूल गए।।
पढ़ाई करने पर जो मार लगी उस मार के घाव अभी ताजा है,
पास हुए और मिठाई मिली वह मीठा स्वाद भूल गए।।
जो मुकाम छुआ जीवन में उसके कर्ता-धरता हम स्वयं हुए,
जो पा न सके जीवन में, उसके जिम्मेदार माँ-बाप हुए।।
हम हँसे अपने कारण ही और रोने का कारण माँ-बाप हुए,
कष्ट मिले जब भी जीवन में, माँ-बाप की आँखों के आँसू भूल गए।।
संतान पालना प्राकृतिक नियम बना है, यह कहना कितना आसान है,
कृतज्ञता भी प्राकृतिक है हम उसको पढ़ना क्यों भूल गए।।
लेन-देन ही जीवन है यही रिश्तों का आधार हुआ,
माँ-बाप से लेना याद रहा माँ-बाप को देना भूल गए।।
prAstya...... (प्रशांत सोलंकी)

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