एक वक्त था जब जेब में पैसे कम थे,
मम्मी पापा की मार से डरे हुए हम थे,
सिगरेट-बीयर छिप-छिप कर पीते थे,
नए कपड़े खरीदते थे और फेंकते थे,
आज सब कुछ मन मुताबिक हो गया है,
पैसों से पर्स लगभग भर गया है,
मम्मी पापा का भी डर सिर से हट गया है,
बस जो लड़का कॉलेज में था वही बदल गया है,
कपड़े घिस जाते हैं नए आते नहीं,
बीयर बार जाने के लिए पैर आगे आते नहीं,
सिगरेट के धुऐं से सिर दर्द होने लगा है,
कॉलेज का वो लड़का इस आदमी के साथ क्यों रहता नहीं,
खिलखिलाने के लिए आज मुँह खुलता नहीं,
घर से बाहर निकलने के लिए मन करता नहीं,
पता नहीं थक गयी है जिंदगी या ये आदमी,
पुराने लड़के की ख्वाहिश पाकर भी खुश रहता नहीं,
कंधे पर सब्जी का थैला और हाथों में दूध की थैलियाँ,
थाली में दाल-रोटी और लौकी-तोरई की सब्जियाँ,
चिपके हुए बाल और मोजों की फटी एड़ियाँ,
जीवन का हरेक हिस्सा पीछे छोड़ आगे बढ़ती रहती हैं जिंदगियाँ।।
prAstya..........(प्रशांत सोलंकी)
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