तरंग इस जीवन का, निशा स्वरूप है।
बहता है ये निर्झर कल कल,पर बड़ा मायूस है।
विरह की इस अग्नि में भी,चन्दा सा शीतल है।
दाग है गहरे कितने,
लगता ये निश्छल है।
रोता हुआ मन भी कितना चंचल है,
जैसे वीराने में उपजा कोई फल है।
बहते हुए आंसू भी लगते संगीत है,
जैसे टप-टप बरसा
के बजते वो गीत है।
रातों की इन बातों को
सपनो की मुलाकातो को
दर्द भरे संगीत को
प्यार और प्रीत को
रहने भी दो अब।।
आ जाओ सपनों में फिर से तुम
मुझको अब सो जाने दो।
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