अब वो कलम भी बंध चुका है एक दायरो में...,
तनिक "हाँ" तनिक "ना" के दायरों में...,
कोई पुनविराम लगाता है तो कोई प्रसनवाचक चिंह?..,
अपनी खुली आजादियां तो वो जैसे भूल ही गया,
वो इंक में डुबोकर गहरे जज़्बात को लिखना,
खुद के दर्द पर मरहम पट्टी करना..,
दुनिया को एक राह दिखाना,
अब दुनिया तम्हारे सुजाए रास्तो पर सवाल कर देगी,
लेखिकि जो समाज का एक "आईना" हैं..उसे धुन्दला घोसित कर देगी,
डर हैं उसे अब खुल कर अपने विचार लिखने में,
अब कुछ लिखेगी भी तो फोन की एक लेखिकि सूत्र पर,
अब कहाँ इन हाथो को फुर्सत हैं कागज और कलम से लिखने की,
अब एक "नौजवान" कहता है अपनी "माँ"(लेखिकि) से की तुम क्या हो?, बस लोग पढ़ कर भूल जाते है,
कोई अमल नही करता,
कोई खुद में नही अपनाता,
अब कोई चादर से पॉव नही ढकता,
अब तुम्हारा वजूद खत्म सा हो गया हैं,
अब नही "कबीर", अब नही "हरिवंश राय बच्चन",
अब नही "प्रेमचंद", अब नही "गुलज़ार साहब..,
ढ़ह गया "कविता" का दुनिया,
मलाल इसी बात का तो रहा है... 😐की कविता लिखते लेखक होते हुए भी ढ़ह गया कविता का दुनिया!!
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