ये लड़की ना, मुझ पर, बहुत ज़ुल्म ढहाती है
जो कभी मेरे साथ रेस्टोरेंट चली जाती है
इस बेचारे ग़रीब की शामत आ जाती है
'मैं कुछ नहीं खाऊँगी' कहने वाली
मेरे हिस्से का भी चट कर जाती है
असली वाट तो अगले दिन लगती है
जब वो एक बार फ़िर से मिलती है
'मैं मोटी हो गयी ना, बताओ ना'
पहला सवाल ही यही करती है
मैं 'नहीं तो' कहकर सर जो हिला दूँ
'झूठे-लायर' कहकर बिदक जाती है
जो मैं कह दूँ 'हाँ बेबी, थोड़ी सी'
ज़ोर से 'हुँह' करके भाग जाती है
मैं उसका बैग उठाये पीछे-पीछे
गधे की तरह भागता-मनाता रहता हूँ
ना सुनती है, ना मानती है, चुपचाप फ़िर भी
जाकर मेरी ही कार के पास खड़ी हो जाती है
उसे पता जो है, 'कैब भारी सवारी नहीं बैठाती है'
मैं फ़िर से सोरी बोलता हूँ फ़िर नाटक दिखाती है
कुछ दूर चलकर तो ऐसे जाती है जैसे पैदल जाना चाहती है
मैं कार लेकर पास जाता हूँ उतर के गेट खोलता हूँ
तब मोहतरमा अहसान झाड़ अंदर आती है
फ़िर आँसुओं की बाढ़ आती है
कल से पक्का डाइटिंग करूँगी कहकर रोती ही जाती है
'नहीं बेबी, आप ऐसे ज़्यादा अच्छी लगती हो' सुनकर सब भूल जाती है
'औ..' बोलकर फ़ोकट शर्मा जाती है
काहे की डाइटिंग, काहे का वेट, यह लड़की नही GST है
मेरे तो बिल्कुल समझ नहीं आती है
- साकेत गर्ग
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