सुनो ,
नज़रे काफ़िर ही बेहतर है ,
रिश्ता जो था ही नहीं , मैं उससे भी तोड़ आयी ।
हाँ सब समझती हूँ मैं ,
जो सब तुम कर गए , उसने समझा ही दिया ।
अपने वजूद की तलाश में , मुझे मत ढूँढा करो ,
क़त्ल मेने किया नहीं तुम्हारा
जानते तो तुम भी हो न ,
खूनी के चेहरे पे , तबस्सुम रूबरू तुम्हारी जैसी थी ।
और एक वजह यह भी
कि हम लाशो को अपने मनपसंद बगीचे में नहीं दफनाते ।
अरसे बाद आज तुम दिखे
तो कोई रंजिश ही नहीं बची
ज़रा सी दया है उस दिल पे
जो प्यार के लिए तड़प रहा है
और फ़िर से , उन लफ़्ज़ों के लिए
जो कैद है , अभी भी बेमतलब भी ।
सुनो ,
माफ़ी मत मांगना कभी
तुम्हारे वो शब्द जिन्हें कभी परखे बिना अपना लिया था मैंने,
अब वो चीखते है , अपनी ही मौत का सबब ,
फर्क बस इतना , कि मेरे पन्ने अब मिन्नतों से मुँह मोड़ना सीख गए ।
(Continued in caption )
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