सारे भटके लोग, बंजारे नहीं होते, ग़म के मारे नहीं होते, वे तो कभी आदतन भटकी राहों पर चलने को प्रशस्त जीवट घुमक्कड़ होते हैं, तो कभी खुद की खोज में डूबे, खोए - खोए से भटक जाते हैं । हर भटकना निराशावादी भी नहीं होता । कई बार हम भटक कर ही सही राह का ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं। जीवन की उबाऊ, एकरूप दिनचर्या निश्चय ही, हमें प्रेरित करती है कि हम नए मार्ग खोजें जो इस बोरियत को खंडित करे, जीवंत बरखा हमें भी भिगो जाए।
क्यों न हम भटकें लेकिन अंधेरों की तरफ नहीं, उजियारे की ओर, उन राहों में खो जाएँ जो खुलें हमारे आत्म ज्ञान के मैदान में?
क्यों न हम भी बन जाएँ, उन भटके हुए लोगों में से, जो शायद सधे रास्तों पर चलने वालों से ज़्यादा यथास्थान हैं?
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