मेरे सामने चौड़ी सी टेबल के
उस ओर बैठी प्रोड्यूसर साहिबा को
मैंने अपनी लिखी कविता पढ़ कर सुनाई
सुनकर कुछ भावुक हो उठीं
फिर धीमे स्वर में बोली
अब तो दुनियां बदल रही है
लड़कियों पर पाबंदियां नहीं रही
उन्हें आगे बढ़ने और पढ़ने लिखने
की पूरी छूट है
हां बेशक उन्होंने मेरी और अपनी
दोनों की ओर इशारा किया
लेकिन अभी बहोत लंबी कतार
बाक़ी है
बाक़ी हैं कई अधूरे ख़्वाब पूरे होने को
बराबरी न्याय सब एक तरफ
क्या सब कुछ सामान्य हो सकता है
क्या हम औरत की आज़ादी और तरक़्क़ी को
उतनी ही सामान्य दृष्टि से देख पाते हैं
जितनी किसी पुरुष की
नहीं ना
अभी कुछ नहीं बदला.
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