sumit bhatia   (©Sumit Bhatia 'मीत')
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Joined 13 January 2018


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6 SEP 2021 AT 22:35

कहने को जीवित है
भीतर से मरे हुए है हम
सारा दिन हँसते है
पर दर्द से भरे हुए है हम..

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29 AUG 2021 AT 1:32

ये स्याह रात, कानों में किशोर के गाने
और इस शीतल बहती हवा का चेहरे को छू जाना
अब ऐसे में तेरी यादों का ज़हन में आना तो लाज़मी है..

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25 AUG 2021 AT 22:41

किसी ने पूछा,
"यार आजकल कुछ लिख नहीं रहा..?"
मैं :
"ज़िन्दगी में रोज़ नया तूफान आता है
और लिखा तो सुकून में जाता है.."

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11 MAY 2021 AT 20:16

••कुदरत और तुम••

स्याह रात सी काली घनी तेरी ज़ुल्फें
खुले विशाल आसमान सा ये तेरा ललाट
शीतल जल की झील और झील सरीखी आँखें
पास में गुलाब का बगीचा, गुलाब रूपी मुस्कान
सुकून भरे कुदरत के नज़ारे सी तेरी सादगी
किसी भटके मुसाफिर सा मैं,
जो बैठा हो खुले आसमान तले,
मिटा रहा हो अपनी थकान..

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3 JAN 2021 AT 14:44

बारिश है बाहर और रज़ाई में हम.
कमरे में अंधेरा है और दिलों में गम..
🖤🖤

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14 SEP 2020 AT 0:53

Everything happens and happened for a reason.
You are what you are today because of the actions
YOU CHOOSE to perform.
If your actions turned into success, keep on hustling.
If your actions doesn't go in your favor, take responsibility of it and try again.

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6 SEP 2020 AT 13:24

सुंदरता की पहचान आईना नहीं कर सकता,
उसके लिए दिल की नज़रों का सहारा ज़रूरी है..

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27 AUG 2020 AT 1:38

The other day, a writer told me, "you write good but you have to work on your perfection"

I said, "I am ORIGINAL and now-a-days that is equal to perfection." And then I noticed that him being a
fake writer was short on words and there
were some fumes coming out of his arse.
😈🔥😈🔥😈

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15 AUG 2020 AT 20:21

क्या हम आज़ाद है??
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एक सवाल ज़हन में है आज मेरे
देश के कई लोगों की नींव में आज भी मोच है
और बेड़ियों में जकड़ी ये हमारी सोच है
तो क्या हम आज़ाद हैं?
.
(Read full poem in caption)

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16 JUL 2020 AT 9:08

बचपन
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एक रात मोहल्ले की बिजली चले जाने पर मैं यूँ ही छत पर धीमी बहती हवा में बैठे जब उस लम्हें की शांति का आनन्द ले रहा था तो मुझे मेरे बचपन की धुँधली हो चुकी कुछ यादों का आभास हुआ और मैं उन यादों के सागर में तैरता चला गया। उन यादों में मैं माँ की गोद में सर रख सो रहा था और ऐसे ही बिजली चले जाने पर माँ मुझे सुलाने के लिए अपने हाथों से पंखा झल रही थी। उस लम्हें की शांति और उन यादों की मधुरता ने मानों जैसे मेरी उम्र के अंतर को ही खत्म कर दिया हो। मैं उन यादों को जीने में मग्न ही था के तभी हवा का बहाव कुछ तेज़ सा होता है और वो हवा का झोंका मेरे लिए मानों जैसे माँ ने मेरे माथे से बहती पसीने की बूंद को हराने का सोच कर अपने हाथों की गति बड़ा दी हो। मैं बचपन की यादों की गहराई में गोते लगा ही रहा था के अचानक मेरा फोन बजता है और मैं जीवन की सच्चाई में वापस लौट आता हूँ इस अफसोस के साथ की अब मैं इस मधुरता को सिर्फ़ यादों में ही जी सकता हूं।

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