प्राण प्रतिष्ठा की लौ से घर रोशन सदा रहे विश्वास की मिठास दिलों में घुलती रहे दो दिन की या महिनों की नहीं है ये दुआ जबतक है जहां खुशियों की दिवाली मनती रहे
स्मृति पटल पर कई बार उभरती है एक स्वर्णिम आभा वो जो पुराने पन्नों से झांकते दरख़्तों के सूखे पत्ते गुदगुदाते है कि ये धूमिल होती सांझ की बेला अनमोल साक्ष्य है ये उम्र भी शांत निश्च्छल से पदचिन्ह छोड़ गुजर जानी है
अंधियारों में तेरी लोरी धूप में तेरा आंचल जड़ें संकट की महीन कर रहा है सुख दुख का ताना बाना मां के आशीष का खजाना सफर जिंदगी का हसीन कर रहा है @ सुमनजीत कौर