जब मौन थी मैं, तब थी कुलीन,
थी शिष्ट, सदगुणी और प्रवीण
जब से बनी हूं प्रश्न मैं
हो गई उद्दंड और चरित्रहीन?
कब तक ये होंठ चुपचाप रहें
रूढ़ियों के बंधन में बंधकर
अंतर्मन भी घुटता सा रहे
कर्तव्यों कि सुली चढ़कर
अब आज स्वर कुछ हैं मुखरित
अधिकारों के प्रश्न उठाने दो
दल बल लेकर आतुर ना बढ़ो
मेरी आवाज़ दबाने को
क्यूं सीधे से "क्यों" को मेरे
अपनी अवमानना जान रहे
मेरी इस न्याय की मांग पे मुझको
विद्रोही सा मान रहे
विद्रोह नहीं, विनती समझो
मानव कल्याण कराने को
तुम दे सकते कुछ मुझे नहीं
बस मेरा मुझको पाने दो
-