Son!t   (poempanti)
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Joined 3 September 2017


Joined 3 September 2017
9 JAN AT 20:41

कोई पड़ाव आख़िरी नहीं होता
न कोई मोड़ अंतिम मोड़ होता है
रास्तों पर पड़ने वाले पदचिह्न
होते हैं कई पर अंतिम नहीं होते
और ये सिलसिला चलता रहता है
अनवरत..अहर्निश..अविराम..
और शायद………..अनुद्देश्य..

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5 NOV 2023 AT 14:43

बचकर चलना
चलकर बचना

फ़र्क़ बहोत है

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3 OCT 2023 AT 5:54

बचपन में पढ़ा था कि कैसे डाकू खड़गसिंह, भिखारी का भेश बनाकर बाबा भारती का घोड़ा चुराता है और अंततः उन्हें चुपचाप लौटा आता है।
जमाना बदल चुका है। आज का खड़गसिंह बाबा बनकर आता है, घोड़ा छीन ले जाता है और उसके चेले-चपेटे पीछे-पीछे खूँटी भी उठा ले जाते हैं।
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10 SEP 2023 AT 0:30

बरसों से तेरे घर पे है ताला लगा हुआ
बरसों से इक उम्मीद को पाले हुआ हूँ मैं

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25 AUG 2023 AT 22:26

कहाँ मिलता है सुकूँ?
आदमी रेस के घोड़े सा दौड़ता है सदा
टाप से उठती हुई सैकड़ों ख़्वाईश की सदा
साँस सीने में उतरती है तलातुम लेकर
इतना सामां कहाँ जाओगे भला तुम लेकर
ख़्याल उठता है ज़ेहन में कि कहीं तो ठहरूँ
अपने कदमों को दूँ आराम,कहीं पर तो रुकूँ
कहाँ मिलता है सुकूँ?
कहाँ मिलता है सुकूँ?

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18 AUG 2023 AT 19:29


कुछ कविताएँ जो ना उतर सकी काग़ज़ पर
चड गई हवाओं की पीठ पर .. बेख़ौफ़
पा लिया शय किसी ज़ेहन में .. इंतज़ार किया
ना उतर सकी कागज पे, तो फिर सवार हुई
और फिर ज़ेहन से ज़ेहन किया सफ़र सदियों
और अब मेरे ज़ेहन में भी एक कविता है
कौन जाने ये किस सदी से चली है यारों
कौन जाने ये कितने जेहनों से होकर गुजरी
कौन जाने मैं इसे पाऊँगा काग़ज़ पे उतार
या ये हो जायेगी कल फिर से हवाओं पे सवार

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14 JUN 2023 AT 13:04

जलाओ अपनी आँखों को
सुलगने दो अपने दिल को
भींचो अपनी मुट्ठी
कसो भुजाओं को
और टूट पड़ो उस हर बात पे
जो ग़लत है
फिर सारा समाज अपनी सारी
बेवकूफियाँ लेकर भी टूट पड़े
तो उसी आग में भस्म कर दो
उन बेवक़ूफ़ियों को
और काट दो उनकी बासी दलीलों के सर
अपनी तर्क की तलवार से

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3 MAR 2023 AT 8:27

हम डूबते किनारों पे..
सहेजने की कोशिश में हैं..
अपने कदमों के निशां..

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4 FEB 2023 AT 9:27

टिमटिमाते हैं सितारों की तरह
आसमाँ से देखने पर ये शहर
फिर जमीं से देखने पर आसमाँ में
देखता हूँ मैं सितारे या शहर ?

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26 DEC 2022 AT 0:07

ठंडी का सर्द मौसम गर्मी अलाव की
होती है आप मरहम हर एक घाव की

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