Smriti Tiwari   (© Smriti_Mukht_iiha)
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Joined 5 September 2017


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Joined 5 September 2017
8 APR 2019 AT 18:36

स्वप्न उलझकर
धराशायी होते हैं।
चिटकती कराह की
पर आवाज़ नहीं होती!

मौन ओढ़कर
विश्वास देह त्यागता है
फिर भी अंजुली में
उसकी राख नहीं होती!

आत्मा को नोंचकर
तार-तार स्मृति रेशों से
टांककर चिन्ह मृषा के
प्रेम की चूनर सीते रहिये!

हाट में प्रपंच के बसती
बासी सुगंध में छलावे की
यहाँ चूनर बेच अनुकंपा ले
कलंक स्वीकृति में जीते रहिये!

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21 DEC 2021 AT 18:09

वो लड़की....
(.... अनुशीर्षक में पढ़ें )

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30 NOV 2021 AT 9:18

" हूँ मनुज मैं!"
(अनुशीर्षक में पढ़ें.....)

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5 AUG 2021 AT 22:23

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3 AUG 2021 AT 23:07

मैंने जब भी माँगा
बादल का टुकड़ा,
खींचा समग्र आकाश
तुमने छतगीर बनाकर!

जब भी चाहा
बूँद भर नीर,
बरसाये अधीर मेघ
आनंद अँसुवन बहाकर!

माँगा जब भी नेह
तुमने रख दिया,
माथे मेरे प्रेम का
पावन चुम्बन सजाकर।

क्षण भर के साथ
से विरह भला है,,
कहकर तुमने विदा ली
मेरे हाथ प्रतीक्षा धराकर।

अब भला!
इतना सब पाकर
कैसे कह दूँ 'ईश्वर निष्ठुर है!'

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2 AUG 2021 AT 8:28

अनमने ढंग से स्विच ऑफ का नन्हा बटन दबाकर प्रवेश किया 'बात करनी है' के अनचाहे गलियारे में। यह गलियारा मुझे कभी भी रास नहीं आता,यहाँ से गुजरते हुये सबसे पहले एक टीस भरा सन्नाटा मेरे साथ चलने लगता है।उसकी दो काली आंखें मुझे यूँ घूरती हैं जैसे मेरे अंदर चल रही हलचल के केंद्र को ढूँढ़ उसे उखाड़ फेंकना चाहती हों।
यहाँ स्वतंत्रता के किवाड़ पर सांकल चढ़ी हुई है समझाइशों की।मैं सांकल पीटती रह जाती हूँ पर न ही किवाड़ खुलते हैं न कोई मुझे पुकारता है।यकायक सांकल में फंसकर मेरी सबसे छोटी उंगली का वह नाख़ून टूट जाता है,जिसे मैंने हफ़्तों तक बड़े ऐहतियात से लंबा किया था विद्रोह के गीत सुनाकर और कल ही उसपर लगाई थी स्वछंदता की सुर्ख़ 'Nail polish' गर्व से।दुःखद है न पर अभी अफ़सोस करने का समय नहीं है क्योंकि 'बात करनी है'।
किवाड़ खुलने पर इन समझाइशों के 'One way' रास्ते से होकर गुजरना मजबूरी जान पड़ती है, यहाँ दीवारों पर उसी पुराने सवाल की सीलन है जिसकी महक से मेरे नथूने सड़ने लगते हैं,अस्तित्व को मूर्छा आने लगती है।अलमारियों में पुरानी परिपाटी वाले सामाजिक नियम के पुतले सजाकर रखे हुये हैं, जो मुझे मेरा परिहास करते जान पड़ते है। जी करता है इन्हें उठाकर फेंक दूँ इसी वक्त अपनी नयी उम्मीद वाली छत के छज्जे से नीचे। फिर देर तक ख़ुल कर हँसती रहूँ इनके बिखरे हिस्सों पर, लेकिन ऐसा फिर कभी करेंगे क्योंकि अभी 'बात करनी है'।

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30 JUL 2021 AT 9:32

आसान है क्या
बोलो जरा।
आसान कितना
तोलो जरा।
आसान है कब
सब छोड़ना!
आसान नहीं है
मुँह मोड़ना!
आसान भला कैसे
रिश्ता तोड़ना।
आसान है कहाँ
प्रेम में जोड़ना!!

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14 JUL 2021 AT 22:51

रिक्त हूँ मैं रिक्त तुम भी
रिक्त हो गईं रीतियां!
चित्त में उमड़े है सावन
भीगी कंपित भीतियां!
बूँद बन स्पर्श कर लो
रोम-रोम आज तो!
खिलता कुमुद हो जाऊं
मैं भूल लोक-लाज को!

'गाओ टिटहरी आज तुम मल्हार,
रिस जाऊँ मैं काया से मन के पार!!'

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12 JUL 2021 AT 23:25

प्रेम जताने के लिये.....

नहीं भींचनी पड़ती मुट्ठियाँ,
ना खींचना होता है मोहपाश,
आलिंगन में बंधना नहीं होता,
ना तोड़ने होते हैं मान के दायरे,
गड़ानी नहीं होतीं निगाहें एकटक रूप पर,
ना उन्मुक्त दौड़ानी होती हैं देह पर उंगलियाँ!

.....प्रेम जताने के लिये
बस थामना होता है...
दो निर्मल हृदयों की
आत्मा से निकला वचनसूत्र,
कि,
मौन पढ़कर, अंतराल पाटकर,
स्वर लहरी भाँपकर,
बंद पलकों को आंककर,
हम एक-दूजे का सदा साथ निभायेंगे!

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9 JUL 2021 AT 9:34

काँच से हृदय ने धरा,
पाषाण सा विश्वास!
दुख बदली भी छंटेगी,
चमकेगा फिर उजास!
ईश्वर मुस्कायेगा किसी,
किलकारी के साथ!
भस्म होंगे द्वेष सभी,
अह्म आहूति के पश्चात!

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