Shubhendra Jaiswal   (shubhendra)
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रहूं ना रहूं मैं... महका करूं ..
Joined 2 June 2017


रहूं ना रहूं मैं... महका करूं ..
Joined 2 June 2017
16 APR AT 21:37

स्नेह सरित का यह पावन गृह, जाने कैसे अभिशप्त हुआ।

शीतल  झोंका  देने  वाला, कब  से  वातायन  तप्त  हुआ।। 

स्वप्न  सलोने  थे  आंखों  में, किसने नींद  चुरा ली अपनी। 

तीखे  नैनों  की  पटुता  से, आंगन  में आग  उठी सजनी।।

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21 MAR AT 8:50

हमें पता है कि "रंगोली" दूसरे ही दिन मिटने वाली है, फिर भी वो ज्यादा से ज्यादा आकर्षक हो मनमोहक हो ये हमारी कोशिश रहती है..

जीवन भी कुछ रंगोली जैसा ही है हमें पता है जिंदगी एक दिन ख़त्म हो जायेगी, फिर भी उसे खूबसूरत बनाने की कोशिश करते रहना चाहिए।

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18 MAR AT 9:40

धूप ठोस होने लगी, लगी निखरने आंँच।
चैता की आवाज पर, फागुन भरे कुलांँच।।
रंग चढ़ा कर प्रेम का, कितने हुए जवान।
हृदय हमारा कर रहा, बैठे - बैठे जाँच।।

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15 MAR AT 15:50


परिभाषित है आज सनातन
कतिपय ढोंगी बाबाओं से,
विचलित होते सन्त सयाने
आडम्बर के कटुताओं से।
परिवारों में कलह मची है
जोकर जैसे मुखियाओं से,
संभव हो तो सम्भालो तुम
अपनों को विष गाथाओं से।
आज अहिंसा के बल पर ही
जग में नाम तुम्हारा होता,
अधनंगी तस्वीरें जग में
क्यूं कर आज गवारा होता।
राम सिया के कृत कर्मों का
अनुपालन यदि सारा होता।
तुमने भी यदि हृदयांगन से
राम का नाम पुकारा होता।
Sj..✍️

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14 MAR AT 21:21

हर पग पर भ्रमित कदाचित हम
हर पथ पर रहे पराजित हम
स्वप्नों के महल पुलिन के थे
स्वप्नों में रहे विराजित हम।

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11 MAR AT 12:44

दिल अज़्रदाह है उधर वाह वाह है
खोया गुमान में मेरा बादशाह है।

अमलों के गमले में गज़ब खारदार गुल
चुभते हैं आजकल वजह आह! शाह है।

मु़ंसफ कानून को पटकते घुमा-घुमा
क़ातिल बना रहा मनमाफिक गवाह है।

अदहन उबल रहा नमक ख्वार चार हैं
मन की बना रहे जबर दाल स्याह है।

सरताज झूठों का बड़ा कौन आजकल
कांधे पे झोली है तख़त पे निगाह है।

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8 MAR AT 12:05

काशी करवट ले रहा,पोत पोत कर रंग।
बाबा के दरबार में, ई - पूजन का  ढंग ।।
ई-पूजन का ढंग, बुकिंग कराओ पहले।
करो टिकट पर जंग,अंग पर दाग रुपहले।।
साँड़ तोड़ दे हाड़, मिलेंगे फिर अविनाशी।
लेख शिला पर सजे,ले रहा करवट काशी।।

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6 MAR AT 8:50

दायित्व सभी पूरे हो प्रभु
तेरे निज जीवन के सारे
घर आंगन में हों खुशियां
वैभव अपना डेरा डाले
चढ़ते रहना नित कहता हूं
सोपान सभी सद कर्मों के
आशीष हृदय से आज यही
हर सुख तू ’शुभ’ का पा ले।

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25 FEB AT 17:08

लघु कथा...

आप में और आपकी कविता में बहुत अन्तर है।
ऐसा भी क्या?
आपकी कविता आंखों से होते हुए सर से गुज़र जाती है!
ओह!
लेकिन आप आंखों में बस जाती हैं।

ओहो! ओहो!!

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22 JAN AT 14:00

बेर जूठे लिए व्यंजनों की तरह
और शबरी हुई चन्दनो की तरह।

आ रहे हैं सुना मैं चकित रह गया 
जो हृदय में रहे धड़कनों की तरह।

श्वास में कण्ठ में आरती घण्ट में
तुम समाए रहे कीर्तनों की तरह।

नाम तेरा लिया दीन बन कर सदा
नाम तेरा मिला साधनों की तरह।

कौन सामर्थ्य मुझमें बताना जरा
मैं उलझ सा गया उलझनों की तरह।

जग कहे एक दाता तुम्हीं राम हो
बन विधाता हुआ अनमनों की तरह।


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