आशुतोष पाण्डेय  
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कुछ भी लिख दूँ, फसाना बन जाता है..
Joined 5 August 2017


कुछ भी लिख दूँ, फसाना बन जाता है..
Joined 5 August 2017

रिश्तों के धागे कमजोर थे।

दुनिया ने कभी यहाँ से खींचा कभी वहाँ से।

शब्दों का मोल नही था,उन्होंने कुछ कहा हमने कुछ सुना।

बिखरते गए वो पन्ने प्रेम के, जिसमें शब्दों की कलाकारी हम सब की थी।

समेटने की कोशिश काश तुम करते काश हम भी करते।

रिश्तों के धागे हाँ कमजोर थे।

दुनिया ने भी जी भर कर कभी यहाँ से खींचा कभी वहाँ से।



आशुतोष पाण्डेय

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समय के काल से घिरे हैं सब...

दुःख-सुख के जंजाल में उलझे हैं सब...

जगदीश ने हमको विवेक दिया...

उस विवेक के विपरीत चलते हैं सब...

अपनी अंतर्मन की शक्ति को भूल....

तिमिर के प्रांगण में खड़े हैं सब...

पहचान लो अगर तुम अपनी शक्ति को...

समय के काल से निकलोगे तुम...

भूल कर दुःख सुख की उलझनों को...

विश्व विजय करोगे तुम......

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तेरे कर्जदार हम क्या हुए गालिब


तुम तो अब तगादा का बहाना खोजने लगे


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तेरी स्मृतियों के जलधाम खोया जा रहा हूँ...


इसके कगार पर मुझको तुम पहुँचा दो न.....

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जनाजा उठ रहा था आशिक का....

मेहबूब की गली से.....

लगता है आशिक का आखरी वक़्त.....

मेहबूब की बाहों में गुजरा.....

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सुनसान सड़क, काली अंधेरी रात...

डरा सहमी सी गली, उस गाली को चीरता सनाटा...

असहज सा मेरा, मन, और कहीं से आती बच्चे की किलकारी...

मेरे साथ चलते हुए, मेरे मन को रौंदते हुए, एक असहज से माहौल बना कर, मुझे भयभीत करती गयी नजाने क्यूँ...

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दुनियादारी की भागदौड़ में..

खुशियां कही छूट गयी...

जिंदगी की पहेली में..

वो हँसी कही छूट गयी...

लौटा दो मुझे वो नटखट बचपन..

जहाँ दुनियादारी से परे हो....

जिंदगी फिर खिलखिला उठे...

जिंदगी फिर खिलखिला उठे....

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तेरे अश्कों को चूम कर...

तेरे हर दर्द को अपना बना लूँ में...

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तेरी हँसी तो देख दूर से मुस्कुराता हुँ..

एक डर तेरे करीब आने से रोकता है मुझे....

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