shiv nanoma   (Shiv Nanoma)
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Joined 17 September 2017


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Joined 17 September 2017
28 SEP 2021 AT 12:55

एक पेड़ से दूसरे पेड़ की "चिड़िया" बनना चाह रहे थे,
हम उन्हें "लता" की तरह खुद से लिपटा कर रखना चाहते थे।

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21 SEP 2021 AT 16:57

चाँद का तकिया बनाकर,
ख़्वाबों की चादर ओढ़े,
तुझमें खो गए थे हम,
बादलों के पीछे सितारे जैसे।

मजबूरियों की धूप ने,
नींद तोड़ जुदा ऐसा किया,
कि सुबह होती अब शुरू
अधूरी यादों की चाय से।।

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10 SEP 2021 AT 20:18

सफर-ए-ज़िंदगी मे नामुमकिन सा था,
तेरा साथ होना,
पर इतना भी मुश्किल ना था,
एक मुलाक़ात का ना होना।

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3 JUL 2021 AT 22:11

जिदंगी भी मानसून की
एक सुहानी शाम,
गुजरते उम्मीदों के बेहिसाब बादल,
बेवजह ख्वाहिशों के खरपतवार,
कुम्हलाते मकसदों के पौधे और
मेहनत की बारिश को तरसती रूह।

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27 APR 2021 AT 17:00

कहाँ तक छुपाओगे,लापरवाहियों को अपनी
जिंदगी के पखेरू उड़ते,ना लगता एक क्षण हैं।

मान क्यों नही लेते कि जीवन-मरण के बीच का
ये एक रण है।
जीतना है इसे,लिया हमने ये प्रण हैं।

ज़िंदगी से बड़ी वजह,ओर क्या होगी
जो बेवजह निकलते घर से,
तारणहार इनका,अब नारायण हैं।

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21 AUG 2020 AT 23:23

मिलती जुलती सी है ये सड़क
हमारे ख्वाबों की सड़क से,

अंतर बस इतना कि
एक भीगी बारिश के बूंदों से,
दूसरी पसीने और अश्रुओं से।

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12 AUG 2020 AT 2:57

आज सुनाया उसने,बड़े आदमी है आप
कहा खाओगे हमारे घर, नीचे बैठ के?

बेकसूर है,नहीं जानते वो ढहती मिट्टी की दीवार,
भीगी किताब और कितने अक्षर छाने है
चिमनी में बैठ के।।

बस चलता गया मैं, ख़्वाब की उंगली पकड़ के।

ना जानना चाहते वे कि बस्तों से चिढ़ते लोग,
चंद गाड़ियां और कितनी ही बार आये
एक ओर लटक के।।

बस चलता गया मैं, ख़्वाब की उंगली पकड के।

सोते थे जब सुकून से वो,जागते उल्लू थे हम,
चाय का कप,चढ़ता चाँद और कितनी ही रातें,
गुजरी बिना नींद के।।

बस चलता गया मैं, ख़्वाब की उंगली पकड़ के।

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6 AUG 2020 AT 20:54

दरख़्तों पर गिरती
ये बारिश की बूंदे,

कुछ तो एक वक्त तलक,
आस सी ठहर जाती ।।
कुछ बस यूं उतावली की,
टूटते ख्वाबों सी बिखर जाती।।

कसूर हमारे ही थे जो
पत्तियों के फैलाव और
शाखों की सघनता पर
मेहनत ना किए।।

बेवज़ह टूटते ख्वाबों
के इल्ज़ाम तक़दीर को दिए।।

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1 JUL 2020 AT 12:28

थोड़ी अच्छी सी,थोड़ी बुरी सी
बचपन की ये पहली जुलाई।

खुशी यह कि-
कॉपियों और किताबों की सुगंध नई

दुख ये कि-
गर्मियों की सारी छुट्टियां क्यूँ चली गयीं।

किसी की यारी नई तो किसी की पुरानी,
इधर नवागंतुक की आँखों में छाई वीरानी।

बस्तों और नए टिफिनों की बात ही निराली,
लाडलों की जिद और अभिभावकों की बेहाली।

थोड़ी अच्छी सी,थोड़ी बुरी सी
बचपन की ये पहली जुलाई।

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8 JUN 2020 AT 0:44

आख़िर भेद कितना शहर और गांव का।

देहात की सुकून भरी खटिया,ऊपर गगन विराट,
यहाँ मखमली पलंग,ऊपर तनाव अपार।।

शीतल बयार की शीतल सी रात,
यहाँ भाप का भरा कमरा और दीवार।।

बारिश बाद मेढकों की टर-टराहट,
यहाँ सड़को पर दौड़ते वाहनों की टर्र टर्र।।

सितारों पर बादलों की घेराबंदी,
यहाँ टीवी की सिखाई रिश्तों की धड़ेबंदी।।

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